जीवन में सफलता का रास्ता अच्छा पढ़ने या अच्छा करियर बनाने से ही नहीं निकलता, 'पाथ ब्रेकिंग' से भी निकलता है। 'पाथ ब्रेकिंग' की अवधारणा को काफी हद तक स्वरा भास्कर ने साबित भी किया है। खुलकर बताया कि मनुष्य के 'चरम सुख' का सुख 'पाथ ब्रेकिंग' में ही निहित है। हालांकि हमारा ऊपर से 'सभ्य' लगने-दिखने वाला समाज अभी 'पाथ ब्रेकिंग' के कॉन्सेप्ट पर नाक-मुंह जरूर सिकोड़ रहा है पर भीतर ही भीतर इसका दीवाना भी बन चुका है। लेकिन बताएगा थोड़े न!
वो तो लोगों को 'पाथ ब्रेकिंग' के कॉन्सेप्ट का एहसास 'वीरे दी वेडिंग' में हुआ जबकि यह उपलब्धि तो चचा वात्स्यायन जाने कब की हमें 'कामासूत्र' के रूप में दे चुके हैं। वही है न कि 'घर की मुर्गी दाल बराबर।'
लोगों के बेड-रूम का तो मुझे नहीं पता मगर सोशल मीडिया पर 'पाथ ब्रेकिंग' ने इन दिनों गजब ढाह रखा है। 'पाथ ब्रेकिंग' पर बनने वाले जोक और वन-लाइनर्स इसकी सफलता की कहानी खुद कह रहे हैं। 'पाथ ब्रेकिंग' शब्द को ईजाद करने वाले ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसका यह शब्द 'यूथ आइकन' बन जाएगा। आलम यह है कि अब तो सड़क चलते कोई भी पूछ लेता है 'और जनाब 'पाथ ब्रेकिंग' कैसी चल रही है?'
मेरे विचार में 'फॉग' के बाद सबसे ज्यादा पूछे जाने वाला सवाल 'पाथ ब्रेकिंग' ही है।
'पाथ ब्रेकिंग' में मुझे अनंत संभावनाएं नजर आ रही हैं। सबसे ज्यादा व्यंग्य में। व्यंग्य के लिए सबसे धांसू नजरिया है 'पाथ ब्रेकिंग'। एक से बढ़कर एक 'पाथ ब्रेकिंग' व्यंग्य लिखे जा सकते हैं। बल्कि मैं तो यहां तक कहने को तैयार हूं 'पाथ ब्रेकिंग' व्यंग्य का भविष्य है। मौजूदा दौर के व्यंग्यकारों को इस मसले पर गंभीर चिंतन करने की जरूरत है।
आपाधापी भरी जिंदगी में जैसे कुछ पल का 'चरम सुख' शरीर को लाइट रखने का काम करता है, वैसे ही व्यंग्य में 'पाथ ब्रेकिंग' मूड को रिफ्रेश करने के काम आएगा। दिमाग पर हर वक्त गंभीरता का लबादा ओढ़े रखना भी ठीक नहीं।
मैं तो यह सोचकर हैरान हूं कि हमारे पुराने और वरिष्ठ व्यंग्यकारों ने 'पाथ ब्रेकिंग' के कॉन्सेप्ट को अपने व्यंग्य लेखन में लेने का प्रयास क्यों नहीं किया? इतनी उत्तेजक रचनात्मकता से अपने पाठकों को महरूम क्यों रखा? माना कि व्यंग्य में जरा बहुत संवेदना, सरोकार, कलात्मकता जरूरी है किंतु 'पाथ ब्रेकिंग' भी उतनी ही आवश्यक है।
खैर...। जो हुआ सो हुआ। वो समय अलग था, यह समय अलग है।
व्यंग्य में नई चमक और गर्माहट पैदा करने के लिए 'पाथ ब्रेकिंग' जरूरी है। लेकिन ये व्यंग्य में आ तभी पाएगी जब हमारे जीवन में भी थोड़ी-बहुत 'पाथ ब्रेकिंग' का चांस बना रहे।
वो तो लोगों को 'पाथ ब्रेकिंग' के कॉन्सेप्ट का एहसास 'वीरे दी वेडिंग' में हुआ जबकि यह उपलब्धि तो चचा वात्स्यायन जाने कब की हमें 'कामासूत्र' के रूप में दे चुके हैं। वही है न कि 'घर की मुर्गी दाल बराबर।'
लोगों के बेड-रूम का तो मुझे नहीं पता मगर सोशल मीडिया पर 'पाथ ब्रेकिंग' ने इन दिनों गजब ढाह रखा है। 'पाथ ब्रेकिंग' पर बनने वाले जोक और वन-लाइनर्स इसकी सफलता की कहानी खुद कह रहे हैं। 'पाथ ब्रेकिंग' शब्द को ईजाद करने वाले ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसका यह शब्द 'यूथ आइकन' बन जाएगा। आलम यह है कि अब तो सड़क चलते कोई भी पूछ लेता है 'और जनाब 'पाथ ब्रेकिंग' कैसी चल रही है?'
मेरे विचार में 'फॉग' के बाद सबसे ज्यादा पूछे जाने वाला सवाल 'पाथ ब्रेकिंग' ही है।
'पाथ ब्रेकिंग' में मुझे अनंत संभावनाएं नजर आ रही हैं। सबसे ज्यादा व्यंग्य में। व्यंग्य के लिए सबसे धांसू नजरिया है 'पाथ ब्रेकिंग'। एक से बढ़कर एक 'पाथ ब्रेकिंग' व्यंग्य लिखे जा सकते हैं। बल्कि मैं तो यहां तक कहने को तैयार हूं 'पाथ ब्रेकिंग' व्यंग्य का भविष्य है। मौजूदा दौर के व्यंग्यकारों को इस मसले पर गंभीर चिंतन करने की जरूरत है।
आपाधापी भरी जिंदगी में जैसे कुछ पल का 'चरम सुख' शरीर को लाइट रखने का काम करता है, वैसे ही व्यंग्य में 'पाथ ब्रेकिंग' मूड को रिफ्रेश करने के काम आएगा। दिमाग पर हर वक्त गंभीरता का लबादा ओढ़े रखना भी ठीक नहीं।
मैं तो यह सोचकर हैरान हूं कि हमारे पुराने और वरिष्ठ व्यंग्यकारों ने 'पाथ ब्रेकिंग' के कॉन्सेप्ट को अपने व्यंग्य लेखन में लेने का प्रयास क्यों नहीं किया? इतनी उत्तेजक रचनात्मकता से अपने पाठकों को महरूम क्यों रखा? माना कि व्यंग्य में जरा बहुत संवेदना, सरोकार, कलात्मकता जरूरी है किंतु 'पाथ ब्रेकिंग' भी उतनी ही आवश्यक है।
खैर...। जो हुआ सो हुआ। वो समय अलग था, यह समय अलग है।
व्यंग्य में नई चमक और गर्माहट पैदा करने के लिए 'पाथ ब्रेकिंग' जरूरी है। लेकिन ये व्यंग्य में आ तभी पाएगी जब हमारे जीवन में भी थोड़ी-बहुत 'पाथ ब्रेकिंग' का चांस बना रहे।
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