जब भी फुर्सत पाती है, मंटो की 'आत्मा' मेरे पास चली आती है। हालांकि मंटो को गुजरे पचास साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है मगर उसकी आत्मा में खास बदलाव नहीं आया है। वो दुनिया-समाज से तब भी नाराज थी, आज भी उतनी ही नाराज है। नाराज हो भी क्यों न! जिस समाज ने हमेशा उसे 'पागल' और उसके लिखे को 'अश्लील' समझा उससे 'नाराजगी' तो बनती है।
मंटो की आत्मा सवाल बहुत करती है। ऐसे-ऐसे सवाल अगर आज की हुकूमत सुन ले तो फिर से उसे 'पागलखाने' में डलवा दे। मगर उसके सवाल होते बहुत वाजिब हैं। वो समाज के- दिमागी स्तर पर- न बदलने पर बहुत खफा है।
मुझसे पूछती है- कितनी हैरानी की बात है, मेरे गुजरने और देश में लोकतंत्र के पैर जमाने के बाद भी लोग जिस्म में तो बदल गए लेकिन दिमागी तौर पर बीमार ही हैं, क्यों? क्या कहूं मंटो की आत्मा से कि उसके इस सवाल का जबाव मेरे पास तो क्या इस्मत आपा के पास भी न होगा।
दरअसल, ये बड़ा ही डरपोक और दब्बू किस्म का समाज है। यहां बखत उसी की है, जो जितना दिमागी से पैदल है। फिर चाहे वो लेखक हो या नेता।
मंटो की आत्मा को यह भी खबर है कि उस पर एक फिल्म तैयार है यहां। इस बात की खुशी उसे भी बहुत है कि लोग उसे पचास साल बीतने के बाद भी शिद्दत से याद करते हैं। उसको खूब पढ़ा और उस पर लिखा भी जा रहा है। लेकिन फिर भी यह दुनिया और समाज बदल क्यों नहीं रहा? कतई कुत्ते की पूंछ जैसा है, टेढ़ा का टेढ़ा।
'यह नहीं बदलने का मंटो साब'। मैं मंटो की आत्मा से कहता हूं। वो खामोश रहती है। थोड़ी हंसी के साथ कहती है कि न बदले मेरा क्या उखाड़ लेगा। मुझे तो जो लिखना था लिख दिया। कह दिया। 'खोल दो' के बाद भी लोग अगर अपनी सोच को नहीं खोलना चाहते तो उनकी मर्जी। पड़े रहें बंद कुएं में। बंद दिमाग और खब्ती विचारों के साथ।
मैं मंटो की आत्मा का दुख समझ सकता हूं। मन में सोतचा हूं- पागल मंटो नहीं, यह समाज ही था।
मंटो की आत्मा सवाल बहुत करती है। ऐसे-ऐसे सवाल अगर आज की हुकूमत सुन ले तो फिर से उसे 'पागलखाने' में डलवा दे। मगर उसके सवाल होते बहुत वाजिब हैं। वो समाज के- दिमागी स्तर पर- न बदलने पर बहुत खफा है।
मुझसे पूछती है- कितनी हैरानी की बात है, मेरे गुजरने और देश में लोकतंत्र के पैर जमाने के बाद भी लोग जिस्म में तो बदल गए लेकिन दिमागी तौर पर बीमार ही हैं, क्यों? क्या कहूं मंटो की आत्मा से कि उसके इस सवाल का जबाव मेरे पास तो क्या इस्मत आपा के पास भी न होगा।
दरअसल, ये बड़ा ही डरपोक और दब्बू किस्म का समाज है। यहां बखत उसी की है, जो जितना दिमागी से पैदल है। फिर चाहे वो लेखक हो या नेता।
मंटो की आत्मा को यह भी खबर है कि उस पर एक फिल्म तैयार है यहां। इस बात की खुशी उसे भी बहुत है कि लोग उसे पचास साल बीतने के बाद भी शिद्दत से याद करते हैं। उसको खूब पढ़ा और उस पर लिखा भी जा रहा है। लेकिन फिर भी यह दुनिया और समाज बदल क्यों नहीं रहा? कतई कुत्ते की पूंछ जैसा है, टेढ़ा का टेढ़ा।
'यह नहीं बदलने का मंटो साब'। मैं मंटो की आत्मा से कहता हूं। वो खामोश रहती है। थोड़ी हंसी के साथ कहती है कि न बदले मेरा क्या उखाड़ लेगा। मुझे तो जो लिखना था लिख दिया। कह दिया। 'खोल दो' के बाद भी लोग अगर अपनी सोच को नहीं खोलना चाहते तो उनकी मर्जी। पड़े रहें बंद कुएं में। बंद दिमाग और खब्ती विचारों के साथ।
मैं मंटो की आत्मा का दुख समझ सकता हूं। मन में सोतचा हूं- पागल मंटो नहीं, यह समाज ही था।
3 टिप्पणियां:
Bahut khub
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुलशेर ख़ाँ शानी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
बढ़िया
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